संघाची भूमिका

रा.स्व.संघाचे सरसंघचालक मोहन भागवत ह्यांनी शहरी लोकांच्या 'पाश्चात्य' जीवनसरणीवर टीका केली आणि असे म्हटले की बलात्काराच्या घटना केवळ अशा ठिकाणी होत असतात, जिथे भारतीय जनतेवर 'पाश्चात्य' मूल्यांचा पगडा आहे. ते ग्रामीण भारतात होत नाहीत. ह्या विधानाला उपोद्बलक असे ठोस पुरावे त्यांनी दिले नाहीत. पण पोलिस आणि स्त्रियांच्या प्रश्नांवर कार्यरत असणाऱ्या विविध बिन-सरकारी संस्था ह्यांच्या विदेवरून असे दिसून येते की ग्रामीण भागातल्या बलात्काराच्या घटना बहुशः रिपोर्ट केल्या जात नाहीत.
भागवत ह्यांनी असेही म्हटले की, असे गुन्हे 'भारता'त होत नाहीत, पण 'इंडिया'त वारंवार होतात.
"तुम्ही देशातल्या गावांकडे आणि जंगलांकडे बघा, तिथे सामुहिक बलात्कार किंवा लैंगिक अत्याचार तुम्हाला दिसणार नाहीत. ते फक्त काही नागरी पट्ट्यांतच होतात. नवीन कायदे करण्याबरोबरच, भारतीय मूल्यव्यवस्था आणि स्त्रियांबद्दलचे दृष्टीकोन हे प्राचीन भारतीय मूल्यांच्या संदर्भात पडताळून बघायला पाहिजेत", असे भागवत म्हणाले.
रा.स्व.संघाची भूमिका ही ह्या संदर्भात कडक कायद्यांची अंमलबजावणी करण्याकडे राहील, तसेच नवीन कायदे करावेत आणि आरोप सिद्ध झाल्यावर सदर आरोपींना मृत्युदंडही द्यावा अशी असेल, असेही ते म्हणाले

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प्रतिक्रिया

भागवत यांची माहिती चुकीची आहे हे विविध माध्यमांनी आकडेवारीनिशी दाखवले आहे.

त्यामुळे त्यांच्या म्हणण्याला विशेष महत्त्व द्यायची गरज नाही.

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ऐसीव‌रील‌ ग‌म‌भ‌न‌ इत‌रांपेक्षा वेग‌ळे आहे.
प्रमाणित करण्यात येते की हा आयडी एमसीपी आहे.

दै सकाळ मधे अस आल आहे " भारतात नाही तर इंडियात जास्त होतात" अस भागवत म्हणाले. इतर वृत्तपत्रात हा जास्त शब्द दिसत नाही. खर काय म्हणाले ते?

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प्रकाश घाटपांडे
http://faljyotishachikitsa.blogspot.in/

तर हे - youtube.com/watch?v=tc_97VHqgtE

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संघाच्या लोकांकडे फार लक्ष द्यायचं असेल तर ते बहुदा विनोदनिर्मितीसाठी अशी भूमिका बनल्यामुळे सरसंघचालकांच्या या बोलण्याला हसण्यावारीच नेलेलं होतं. किंवा असं काही विनोदीच हे बोलणार अशी अपेक्षाही होती. थोडं दु:ख झालं ते या बातमीमुळे.
आशिष नंदी नामक social scientist आहेत ज्यांनी बातमीत म्हटल्याप्रमाणे मोहन भागवतांच्या या विधानाला पुष्टी दिलेली आहे.

“It is not only in India but in most of the world. So I don’t think Bhagwat was wrong because in India there are many instances, even in rural India there are many instances of rape. I must tell you that the future is loaded in favour, if I may put it that way, of urban India and modern India. In other words you will hear more instances of rape in cities and metropolitans,” he says.

आतिवास यांनी अन्यत्र लिहील्याप्रमाणे शहरीकरणातून गुन्हेगारी वाढते, शहरांमधे मनुष्याला चेहेरा नसतो, मनुष्य गर्दीचा भाग असतो इ. इ. हे विवेचन पटण्यासारखं आहे. नंदी यांना वाढतं शहरीकरण वाढत्या गुन्हेगारीला कारणीभूत आहे हे या प्रकाराने सुचवायचं असेल तर ते मलाही मान्य आहे. (तहलकाने ध-चा-मा केलेला असण्याची शक्यता नाकारता येत नाही.) पण पाश्चात्य संस्कृतीच्या प्रभावामुळे असे हीन प्रकार होतात हे अजिबात मान्य नाही. पाश्चात्य शिक्षणाआधीही आपल्याकडे उच्चवर्णीय विधवांवर लैंगिक अत्याचार होत, सतीचे प्रकार असायचे, वहीवाटीने तिला मिळालेली संपत्ती हडपण्यासाठी घरातलेच लोक तिला छळायचे इ.इ.

दुसर्‍या बाजूने प्रगतीसाठी "शहरांकडे चला, इंग्लिश* शिक्षण घ्या" हा आंबेडकरांचा विचार अतिशय योग्य वाटतो. वाढत्या गुन्हेगारीला आळा घालता येत नाही म्हणून (भौतिक प्रगती न झालेल्या) गावांमधेच** रहा किंवा इंग्लिश शिकू नका असं म्हणणं म्हणजे प्रगतीचं चाक मागे फिरवणं आहे.

*ज्या भाषेत ज्ञान उपलब्ध आहे ती भाषा; ज्या भाषेचं शिक्षण घेण्यास जात आडवी येत नाही ती भाषा - हे तत्कालिक कारण असू शकतं.
** शहरांमधे गर्दीला चेहेरा नसतो त्यामुळे मनुष्याची जात-पात अशी ओळख लपते (कालांतराने जात-धर्म या गोष्टी दुर्लक्षिण्यासारख्या होतीलच) आणि कर्तृत्वाला पूर्ण वाव मिळण्याची शक्यता वाढते हा मोठा फायदा आहेच. हे मुळात आंबेडकरांचेच विचार.

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सांगोवांगीच्या गोष्टी म्हणजे विदा नव्हे.

मला फेसबुक वर भागवतांच्या भाषणाचा मसुदा मिळाला. तो असा आहे -

‘‘इंडिया में जो यह घट रहा है, बढ़ रहा है वह बहुत खतरनाक और अश्लाघ्य है। लेकिन ये भारत में नहीं है। यह इंडिया में है। जहां इंडिया नहीं है, केवल भारत है वहां ये बातें नही होती, आज भी। जिसने भारत से नाता तोड़ा उसका यह हुआ। क्योंकि यह होने के पीछे अनेक कारण हैं। उसमें एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम मानवता को भूल गये, संस्कारों को भूल गये। मानवता, संस्कार पुस्तकों से नहीं आते, परंपरा से आते हैं। लालन-पालन से मिलते हैं, परिवार से मिलते है, परिवार में हम क्या सिखाते है उससे मिलते हैं।

पारिवारिक संस्कारोंकी आवश्यकता

दुनिया की महिला की तरफ देखने की दृष्टि वास्तव में क्या है?दिखता है की, महिला पुरुष के लिए भोगवस्तु है। किन्तु वे ऐसा बोलेंगे नहीं। बोलेंगे तो बवाल हो जाएगा। किन्तु मूल में जा कर आप अध्ययन करेंगे तो महिला उपभोग के लिए है, ऐसा ही व्यवहार रहता है। वह एक स्वतंत्र प्राणी है, इसलिए उसे समानता दी जाती है। किन्तु भाव वही उपभोग वाला होता है। हमारे यहां ऐसा नहीं है। हम कहते हैं कि महिला जगज्जननी है। कन्याभोजन होता है हमारे यहां, क्योंकि वह जगज्जननी है। आज भी उत्तर भारत में कन्याओंको पैर छूने नहीं देते, क्योंकि वह जगज्जननी का रूप है। उल्टे उनके पैर छुए जाते हैं। बड़े-बड़े नेता भी ऐसा करते हैं। उनके सामने कोई नमस्कार करने आए तो मना कर देते हैं,स्वयं झुक कर नमस्कार करते हैं। वो हिंदुत्त्ववादी नहीं है। फिर भी ऐसा करते हैं। क्योंकि यह परिवार के संस्कार हैं। अब यह संस्कार आज के तथाकथित एफ्लुएन्ट परिवार में नहीं हैं। वहां तो करिअरिझम है। पैसा कमाओ, पैसा कमाओ। बाकी किसी चीज से कोई लेना-देना नहीं।

शिक्षा से इन संस्कारों को बाहर करने की होड़ चली है। शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने के लिए होती है। किन्तु आजकल ऐसा नहीं दिखता। शिक्षा मानवत्त्व से देवत्त्व की ओर ले जाने वाली होनी चाहिए। किन्तु ऐसी शिक्षा लगभग शिक्षा संस्थानों से हटा दी गई है। समाज में बड़े लोगों को जो आदर्श रखने चाहिए वो आदर्श आज नहीं रखे जाते। उसको ठीक किया जाना चाहिए। कड़ा कानून बिलकुल होना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है। कड़ी सजा दोषियों को होनी ही चाहिए। इसमें कोई दो राय नही है। फांसी की होती है तो हो। विद्वान लोग विचार करे और तय करे। लेकिन केवल कानूनों और सजा के प्रावधानों से नहीं बनती बात। ट्रॅफिक के लिए कानून है मगर क्या स्थिति होती है?जब तक पुलिस होती है, तब तक कानून मानते है। कभी-कभी तो पुलिस के होनेपर भी नहीं मानते।जितना बड़ा शहर और जितने अधिक संपन्न व सुशिक्षित लोग उतने ज्यादा ट्रॅफिक के नियम तोड़े जाते हैं। मैं कोई टीका-टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। केवल ऑब्जर्व कर रहा हूं। मैं विमान में बैठा था। पास में एक सज्जन बैठे थे। मोबाइल पर बात कर रहे थे। विमान का दरवाजा बन्द हुआ। किन्तु उनकी बात बन्द नहीं हुई। एअर होस्टेस चार बार बात बन्द करने के लिए कह गई। इनके लगातार फोन काल आ रहे थे। अबकी बार एअरहोस्टेस को आते हुए देख वे भड़क उठे और कहने लगे, ‘२८ इंजिनिअरिंग संस्थानोंमें डिसिप्लिन रखने का जिम्मा मेरे उपर है, और आप मुझे डिसिप्लिन सिखा रही है! ’अब अगर २८ संस्थाओं में डिसिप्लिन रखने की जिम्मेदारी जिस पर है, वह एरोप्लेन में दी जानेवाली सामान्य सूचनाओं का पालन नहीं करता तो उसे हम क्या कहे?इसके विपरीत हमारे वनवासी क्षेत्रों में चले जाएं। जहां अनपढ लोग हैं, गरीब लोग हैं। उनके घर का वातावरण देखो। कितना आनन्द होता है। कोई खतरा नहीं। बहुत सभ्य, बहुत सुशील। (वहां परंपरा, परिवार की शिक्षा कायम है। शहरों में) शिक्षा का मनुष्यत्त्व से नाता हमने तोड़ दिया इसीलिए ऐसा होता है।

बिना संस्कार कानून असरदार नहीं

कानून और व्यवस्था अगर चलनी है, उसके लिए मनुष्य पापभीरू होना है, तो उसके लिए संस्कारोंका होना जरूरी है। अपने संस्कृति के संस्कारों को हमें जल्द जीवित करना पड़ेगा। शिक्षा में कर लेंगे तो परिस्थिति बदल पाएंगे। तब तक के लिए कड़े कानून, कड़ी सजाएं आवश्यक है। दण्ड हमेशा होना चाहिए शासन के हाथों में और वह ठीक दिशा में चलना चाहिए। वह इन सबका प्रोटेस्ट करने वालों पर नहीं चलना चहिए। उसके लिए उनका संस्कार भी आवश्यक है। वो वातावरण से मिलता है। पर वो भी आज नहीं है। हम यह करें तो इस समस्या का समाधान पा सकते हैं।

मातृशक्ति है भोगवस्तु नहीं

हमारी महिलाओं की ओर देखने की दृष्टि वे मातृशक्ति है यही है। वे भोगवस्तु नहीं,देवी हैं। प्रकृति की निर्मात्री है। हम सब लोगों की चेतना की प्रेरक शक्ति है और हमारे लिए सबकुछ देनेवाली माता है। यह दृष्टि जब तक हम सबमें लाते नहीं तब तक ये बातें रुकेगी नहीं। केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। वो होना चाहिए किन्तु उसके साथ संस्कार भी होने चाहिए।’’

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मी पहिल्या परिच्छेदालाच अडखळलो.

"इंडिया में जो यह घट रहा है, बढ़ रहा है वह बहुत खतरनाक और अश्लाघ्य है। लेकिन ये भारत में नहीं है। यह इंडिया में है। जहां इंडिया नहीं है, केवल भारत है वहां ये बातें नही होती, आज भी। जिसने भारत से नाता तोड़ा उसका यह हुआ। "

उसका यह हुआ म्हणजे नक्की कोणाचं? गुन्हेगाराचं की बळीचं? बळीचं असेल तर त्या पीडित तरुणीने भारतसे नाता तोडून इंडियासे कसा जोडला होता हे भागवत यांना कुठून समजले हा एक प्रश्न उपस्थित होतो.

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बातमी पहिल्यांदा ऐकली तेंव्हा भागवत एवढा बेसिक घोळ करतील असं वाटलं नव्हतं.
भारत/इंडिया, गरिब/श्रीमंतचा संबंध अशा केसेसना लावणं म्हणजे दिशाभुल करणं अाहे.
बाकी भाषण प्रचारकी थाटाचं अाहे.

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भागवतांची साठी नुकतीच झाली का?

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सांगोवांगीच्या गोष्टी म्हणजे विदा नव्हे.

१९४९ पर्यंत संघ हा कुठच्याच लिखित घटनेशिवाय अस्तित्वात होता. गांधीवधानंतर जी बंदी आली ती १९४९ मध्ये उठवताना सरकारने संघाची घटना बनवण्याची अट घातली. त्याप्रमाणे ती तयार केली गेली. कोणाकडे या घटनेची कॉपी आहे का? जालावर ती उपलब्ध आहे का? मी शोधली पण पटकन सापडली नाही.

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गांधीवधानंतर जी बंदी आली ती १९४९ मध्ये उठवताना सरकारने संघाची घटना बनवण्याची अट घातली.

गांधीवध? दुरूस्त आहे का हे?

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कोणाच्याही दृष्टीने वध हे नादुरुस्तच आहे.

करणारे तरी त्याला गांधीहत्याच म्हणत. पुस्तकाला नाव तरी "गांधीहत्या आणि मी" असंच आहे.

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ऐसीव‌रील‌ ग‌म‌भ‌न‌ इत‌रांपेक्षा वेग‌ळे आहे.
प्रमाणित करण्यात येते की हा आयडी एमसीपी आहे.

गांधीहत्या या शब्दाऐवजी मी चुकून गांधीवध हा शब्द वापरला. त्याबद्दल मी माफी मागतो. संघाविषयी विचार करत असल्यामुळे तो चुकून टाइपला गेला. पुन्हा एकदा क्षमस्व.

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>>थोडं दु:ख झालं ते या बातमीमुळे.<<

ज्या पद्धतीनं नंदींच्या वक्तव्याचं वार्तांकन झालं ते पाहता गुंतागुंतीच्या समाजशास्त्रीय पृथक्करणाचा माध्यमांनी पुन्हा एकदा सनसनाटी करण्यासाठी वापर करण्याचा हा प्रकार दिसतो. नंदी यांचं म्हणणं (मला कळलं त्यानुसार) काहीसं असं असावं : शहरांतल्या व्यक्तिकेंद्री मूल्यांतून आलेल्या स्वातंत्र्याला शहरी जनतेत सर्वंकष सहमती मिळावी ह्यासाठी ज्या आधुनिक मूल्यांना समाजानं अंगिकारणं आवश्यक आहे, ती मूल्यं अंगिकारली न गेल्यामुळे जे अंतर्विरोध निर्माण होतात त्यांतून होणारे हे (दिल्लीतल्या घटनेसारखे) बलात्कार आहेत. हे अंतर्विरोध हे शहरात येणाऱ्या वेगवेगळ्या प्रकारच्या लोकांच्या जीवनमूल्यांत असणाऱ्या फरकांमुळे निर्माण होतात. खेड्यांत होणारे बलात्कार हे प्रामुख्यानं सरंजामवादी, जातीयवादी, पुरुषसत्ताक व्यवस्थेमुळे होतात. ती व्यवस्था साचलेली आहे ती पिढ्यानपिढ्या तशीच आहे. त्यामुळे तिथले बलात्कार ही जुनीच समस्या आहे, तर शहरातले हे बलात्कार ही (तुलनेनं) नवी समस्या आहे.

म्हणजे नक्की काय? जागतिकीकरणामुळे शहरांची जी सूज आल्यासारखी आर्थिक वाढ झाली, तीमुळे निवडक शहरी लोकांच्या आर्थिक-सामाजिक परिस्थितीत सुधारणा झाली. बदललेल्या समाजात ह्या वर्गाच्या काही स्त्रियांना पूर्वीहून अधिक स्वातंत्र्य मिळालं, पण ते अचानक मिळालं. अचानक म्हणजे कसं? मला अजून माझ्या लहानपणीचं पुणं आठवतं. तेव्हा 'इथे रस्त्यांवर स्त्रिया स्कूटर चालवतात' वगैरे गोष्टींचं इतरत्र भारतातून आलेल्या लोकांना आश्चर्य वाटे. पुण्यात ही पुरोगामी परंपरा पूर्वीपासून असल्यामुळे पुण्यातली आजची स्त्री आणि दिल्लीतली आजची स्त्री यांच्या परिस्थितीत फरक पडतो असं वाटतं. म्हणजे जागतिकीकरणाचे जवळपास तेच फायदे दोन्हींकडे मिळाले, पण पुण्यात ते पूर्वीच्या पुरोगामी परंपरेशी संलग्न होत होत आलेले असल्यामुळे 'अचानक' वाटले नाहीत. दिल्लीत ती पुरोगामी परंपरा नव्हती, म्हणून तिथल्या मुलींचं हे नवं स्वातंत्र्य तिथल्या पारंपरिक पुरुषांच्या डोळ्यांत अधिक खुपतं. म्हणजे भागवत म्हणताहेत की जुनी मूल्यं सोडून दिल्यामुळे हे घडतंय, तर नंदी म्हणताहेत की जुनी मूल्यं सुटत नाहीएत म्हणून हे घडतंय.

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- चिंतातुर जंतू Worried
"ही जीवांची इतकी गरदी जगात आहे का रास्त |
भरती मूर्खांचीच होत ना?" "एक तूच होसी ज्यास्त" ||

विवेचन आवडलं.
अवांतर : म्हणजे भागवत म्हणाले तर चुकीचं आणि नंदी म्हणाले तर बरोबर, असं का ? Wink

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नो आयडियाज् बट इन थिंग्ज.

'त्यांना काय म्हणायचं असावं' अशी इण्टरप्रिटेशन पाहून उगाच राम माधवांचा तेच फिक्स्ड तुपकट हास्य थापलेला चेहरा डोळ्यासमोर आला, व 'त्यांना अ‍ॅक्चुअली काय म्हणायचं होतं' हे सांगताहेत असं वाटलं

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-: आमचे येथे नट्स क्रॅक करून मिळतील :-

संघाची भूभूमिका असं लिहायचं होतं का?

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